पंडित हेमवती नन्दन कुकरेती । इस वर्ष श्राद्ध पक्ष यानी पितृ पक्ष 10 सितंबर से प्रारंभ हो रहा है। इसका समापन 25 सितंबर को होगा। इस दौरान श्राद्ध, तर्पण व पिंडदान जैसे कार्य किए जाते हैं ।
सनातन धर्म में श्राद्ध का महत्व – जाने अनजाने कुछ ऐसे कर्म हो जाते हैं जिन्हें सामाजिक, धार्मिक तथा मानवता के आधार पर उचित नहीं ठहराया जा सकता है l सनातन धर्म के अनुसार मनुष्य द्वारा किए जाने वाले कर्मों को दो श्रेणी में विभक्त किया गया है पहलाह वे कर्म जो सब के हित के अनुसार हो, किसी को किसी प्रकार का कष्ट न पहुंचे ऐसे कर्म को पुण्य कर्म कहा जाता है l पुण्य कर्म का फल स्वर्ग माना गया है। स्वर्ग जहां सभी दिव्य आत्माओं एवं देवताओं का वास होता है तथा जहां जन्म – मृत्यु के चक्र से मुक्त रहते हैं, जहां शोक,व्याकुलता,संतान जैसी व्याधि न हो। द्वितीय पाप कर्म वे कर्म होते हैं जिनके द्वारा मनुष्य जीवन अथवा जीवजंतु तथा कोई प्राणी कष्ट उठाता है। शास्त्रों में पाप कर्म का फल नरक बताया गया है। नरक का वर्णन गरुड़ पुराण तथा अन्य धर्म शास्त्रों में इस प्रकार से आया है कि मरने के बाद जब कोई आत्मा जीव का परित्याग कर देती है तो कर्म के आधार पर उस मृतात्मा को कर्मानुसार स्वर्ग या नरक की प्राप्ति होती है। पाप कर्म आत्मा को नरक में यमराज के दूत रस्सी में बाँध कर कोड़े (चाबुक) से पीटते हुए ले जाते हैं। कई प्रकार की यातनाएं दी जाती हैं,जिनका वर्णन यहां करना सम्भव नहीं है। स्वर्ग नरक भोगने के बाद जीव अपने संचित कर्मों के आधार पर चौरासी लाख योनियों को उपभोक्ता है। पुण्य आत्मा मनुष्य योनि या देव योनि को प्राप्त करती है। पाप आत्मा पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि योनिया प्राप्त करती है। शास्त्रों में उल्लेख आया है कि “पुन्नामनरकात् त्रायते इति पुत्रः,” नरक से जो त्राण (रक्षा) करता है वही पुत्र है। शास्त्रों के अनुसार पुत्र-पौत्रादि का यह कर्तव्य होता है कि वे अपने माता-पिता तथा पूर्वजों के निमित्त श्रद्धापूर्वक कुछ ऐसे कर्म करें जिससे मृत आत्माओं को परलोक में सुख तथा शान्ति की प्राप्ति हो सके, इसलिए सनातन धर्म में पितृ ऋण से मुक्ति के लिए अपने माता-पिता तथा परिवार के मृत व्यक्तियों के निमित्त श्राद्ध करने की आवश्यकता बताई गई है।
श्राद्ध की परिभाषा – हमारे धर्म शास्त्रों के अनुसार पितरों के निमित्त जो कर्म विधि पूर्वक एवं श्रद्धा से किया जाता है उसे श्राद्ध कहते हैं। श्रद्धा से ही श्राद्ध शब्द की उत्पत्ति होती है। इसे पितृ यज्ञ भी कहते हैं। महर्षि पाराशर के अनुसार- देश,काल तथा पात्र में हविष्यादि विधि द्वारा जो कर्म तिल,जौ और कुश तथा मंत्रों से युक्त श्रद्धापूर्वक किया जाए वही श्राद्ध है, जो व्यक्ति विधि पूर्वक शांतमन हो कर श्राद्ध करता है, वह सभी पापों से मुक्त होकर पुण्य को प्राप्त करता है। श्राद्धकर्ता को पितृगण की संतुष्टि तथा अपने कल्याण के लिए भी श्राद्ध को आवश्यक करना चाहिए। इस संसार में श्राद्धकर्ता के लिए श्राद्ध से श्रेष्ठ अन्य कोई कल्याणकारक उपाय नहीं है। श्राद्ध करने से आयु की वृद्धि होती है, पुत्र-पौत्रादि की प्राप्ति होती है, इससे कुल की,वंश की वृद्धि अक्षुण बनी रहती है। घर में धन-धान्य की वृद्धि होती है। समाज में मान-सम्मान की प्राप्ति होती है।इस प्रकार श्राद्ध सांसारिक जीवन को सुख में बनाता ही है, परलोक को भी सुधारता है और अंत में मुक्ति भी प्रदान करता है। मार्कंडेय पुराण में कहा गया है की – “श्राद्ध से संतुष्ट होकर पितृगण श्राद्धकर्ता को दीर्घायु, संतति, धन,विद्या,राज्य,सुख,स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करते हैं।
श्राद्ध न करने से हानि:- शास्त्रों में श्राद्ध न करने से हानि बताई गई है। मृत आत्मा को श्राद्ध विधि से उसके सगे संबंधी जो कुछ देते हैं, वही उसे मिलता है। शास्त्रों ने मरणोपरांत पिंडदान की व्यवस्था की है शवयात्रा के अंतर्गत छ:पिण्ड दिए जाते हैं। दशगात्र में दिए जाने वाले दश पिंडो के द्वारा जीव को आतिवाहिक सूक्ष्म शरीर की प्राप्ति होती है। उत्तमशोडषी में दिए जाने वाले पिंडदान से उसे रास्ते के लिए भोजन,अन्न,जल आदि की आवश्यकता पड़ती है। यदि मृतात्मा के निमित्त सगे संबंधी पिंडदान या श्राद्ध न दे तो उसे उस लोक में भूख, प्यास से उसे बहुत दुख होता है। श्राद्ध न करने वालों को भी पग-पग पर कष्ट और दुखों का सामना करना पड़ता है। मृतात्मा का श्राद्ध करने वाले उस के अपने सगे- संबंधियों को वह आत्मा श्राप दे देती है। जिससे घर मे अशांति, झगड़े, बीमारी, अपशकुन, दुर्घटना, अकाल मृत्यु, कर्जा,दरिद्रता आदि कई प्रकार की व्याधियां उत्पन्न हो जाती है। तथा परिवार का जीवन नरकमय बन जाता है। परिवार में संतान की प्राप्ति नहीं होती, प्रत्येक कार्यों में विघ्न तथा दुर्बुद्धि का वास घर में बना रहता है।
ब्राह्मण भोजन से भी श्राद्ध की पूर्ति – श्राद्ध की दो मुख्य प्रक्रिया है नंबर एक पिंडदान और नंबर दो ब्राह्मण भोजन। मृत्यु के बाद जो लोग देवलोक या पितृलोक में पहुंचते हैं वे मंत्रों के द्वारा बुलाए जाने पर उन-उन लोकों से शीघ्रता से श्राद्ध वाले स्थान में आ जाते हैं और निमंत्रित ब्राह्मणों के माध्यम से भोजन करते हैं। सूक्ष्म ग्राही होने से भोजन के सूक्ष्म कणों के आघ्राण से उनका भोजन हो जाता है। वह तृप्त हो जाते हैं। वेदों में कहा गया है कि ब्राह्मणों को भोजन कराने से वह पितरों को प्राप्त हो जाता है। मनुस्मृति में कहा गया है कि ब्राह्मण के मुख से देवता हव्य को खाते है तथा पित्र कव्य को खाते हैं।
श्राद्ध कब करना चाहिए – अक्सर बहुत से लोगों के मन में यह दुविधा बनी रहती है कि वह लोग अपने पितरों का श्राद्ध कब करें तो यहां पर मैं बता देना चाहता हूं की जब भी पितृपक्ष प्रारंभ होता है तो जिस तिथि को किसी व्यक्ति की मृत्यु हुई हो उसी तिथि को श्राद्ध करना चाहिए। श्राद्ध की विधि – श्राद्ध तिथि के दिन ब्राह्मणों को आमंत्रित करें, तथा शास्त्र के अनुसार यथा विधिपूर्वक श्राद्ध की प्रक्रिया पूर्ण करें, तत्पश्चात ब्राह्मण को श्रद्धापूर्वक भोजन करावे। ध्यान रखिए कि भोजन में लहसुन, प्याज या उड़द दाल न हो । भोजन से पूर्व स्वच्छ वस्त्र बिछाकर ब्राह्मण के पैर में जल देकर धुल दे उस के बाद ही भोजन कराएं और भोजन के पश्चात ब्राह्मण से आशीर्वाद ग्रहण करें तथा ब्राह्मणों को सामर्थ्य के अनुसार दान दक्षिणा तथा वस्त्र अवश्य दें तथा अपने परिवार की कुशलता और मृत आत्मा की शांति के लिए ब्राह्मणों से आशीर्वाद प्राप्त करें।